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कविता

कीचड़

महेश वर्मा


थोड़ी भी बारिश हो जाए आजकल
कीचड़ ही कीचड़ हो जाता है हर ओर
पहले कहाँ होता था ऐसा?
और काली सड़क के दोनों ओर की यह चिकनी मिट्टी
किसी दूर देश से लाकर बिछाते हैं इसको ठेकेदार।
कैसा तो रुग्ण पीला इसका रंग, पानी पड़ते ही हो जाता गिचपिच।
इसके खूब नीचे ही मिल पाती इस देस की लाल मुरुम वाली माटी,
रिसकर चला जाता पानी नीचे और नीचे
उपर से सूखी और मज़बूत बनी रहती थी यहाँ की धरती।
पर आजकल अगर थोड़ी भी बारिश हो जाए
हो जाता है कीचड़ हर ओर।
कितने भी रगड़े जाएँ पाँव बाहर पाँवदान पर
चला ही आता कुछ न कुछ कीचड़ भीतर फिर
कितने भी जतन लगा ले गृहस्वामिनी
कम से कम बारिश की मार तो नहीं ही उतरता फर्श से पीला मटमैला रंग
और कितनी तो फिसलन हो जाती इस कीचड़ से,
चलते चलते लगता अड़ा दी हो किसी शोहदे ने लँगड़ी
या चाहती हो यह धरती ही हमारा फिसलकर गिरना।
गिरते ही लग जाता हथेलियों पर, घुटने पर, कुरते पर कीचड़।
सँभाला भी नहीं जाता है चश्मा।
थोड़ी सी बारिश होते ही आजकल।


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